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भारत में मृदा के प्रकार एवं वितरण

भारतीय मृदा के प्रकार एवं इनका वितरण क्षेत्र।
भारतीय मृदा का प्रकार एवं वितरण

भूमिका:

  • मृदा पृथ्वी पर मौजूद जीव-जंतुओं, वनस्पतियों और विशेष रूप से मानवों के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है।
  • यदि जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती तो मृदा के बिना जीवन के विकास की कल्पना करना व्यर्थ है।
  • पृथ्वी पर केवल मृदा का होना अधिक महत्वपूर्ण नही है जितना की इसका उपजाऊ होना आवश्यक है।
  • मृदा का उपजाऊ बहुत ही आवश्यक है, इसे इस बात समझा जा सकता कि विश्व की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताएं उपजाऊ भूमि पर ही विकसित हुई।

मृदा की रचना:

  • मृदा का निर्माण भू-तल की मूल चट्टानों से होता है।
  • इन्ही मूल चट्टानों के खंडित पदार्थों, जीवाश्मों एवं वनस्पतियों के कुछ अंशों के सड़ने, गलने से लाखों,करोड़ों वर्षों के पश्चात होता है।
  • मृदा का निर्माण तो मूल चट्टानों से ही होता है लेकिन मृदा रासायनिक गुणों, बनावट एवं रंग रूप में मूल चट्टानों से अलग होता है।
  • मृदा के विकास में सूर्यताप, जल, वायु, रसायन आदि तत्व सहायता करते है।
  • इस तरह मूल चट्टानों, अपरदन, अपक्षय, वनस्पतियों, कीटाणुओं आदि के संरचनात्मक भौतिक क्रियाओं के कारण मृदा अपने अस्तित्व में आता है।

मृदा में प्रमुखतः दो तत्व पाये जाते है-

1. खनिज तत्व,

  • यह मृदा की मूल चट्टानों से प्राप्त होते है।

2. जैविक तत्व (ह्यूमस),

  • जैव तत्व, वनस्पतियों एवं जीवधारियों के नष्ट होने से प्राप्त होते है।

उपजाऊ मृदा क्या है?

  • उपजाऊ मिट्टी वह है जिसमे पौंधो को बढ़ने और फल देने के लिए सभी प्रकार के पोषक तत्वों का समावेश हो।
  • यह पोषक तत्व है, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम।
  • उपजाऊ मृदा जल को अच्छी तरह से अवशोषित करता है जिससे पौधे को पर्याप्त मात्रा में जल की आपूर्ति हो सके।

अनुपजाऊ मृदा क्या है?

  • अनुपजाऊ मृदा वह है जिसमे पौधों के विकास के लिए पोषक तत्वों का अभाव/कमी होती है।
  • पोषक तत्वों से तात्पर्य नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि।
  • इस प्रकार की मृदा में उच्च लवणता या पीएच हो सकता है।
  • इनमे जल धारण क्षमता भी कम होती है अर्थात् जल को अच्छी तरह से अवशोषित नही कर पाती।

भारत में मृदा के प्रकार एवं वितरण-

  • भारतवर्ष एक विशाल देश है यहां स्थलाकृति भी भिन्न है, अलग-अलग जलवायु विशेषताएं पायी जाती है, वनस्पति में भी पर्याप्त विभिन्नता है इसलिए यहाँ मृदा के अलग-अलग प्रकार देखने को मिलता है।
  • भारतीय मृदा को कई विद्वानों वर्गीकृत किया है।
  • लेकिन यहां हम भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) के द्वारा वर्गीकृत किए गए 7 प्रकार की मृदा के बारे में जानेंगे जो निम्नलिखित है-

1. जलोढ़ मृदा-

  • जलोढ़ मृदा विशेष रूप से उन स्थानों पर पाया जाता है जहां नदियों के बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र होते है।
  • भारत में सिंधु नदी, गंगा-यमुना, ब्रम्हपुत्र नदी घाटी में इस मृदा का विस्तार है।
  • इस मृदा का रंग हल्का भूरा होता है, परंतु अधिकांश स्थानों में पीली दोमट तथा कुछ स्थानों में यह बलुई व चिकनी पायी जाती है।
  • सम्पूर्ण देश में इसका विस्तार लगभग 7 लाख 68 हजार वर्ग किलोमीटर पर है।

इसके तीन उप-विभाग है-

1. पुरातन जलोढ़ मृदा-

  • इस मृदा को बांगर के नाम से भी जाना जाता है।
  • यह मिट्टी अधिक उपजाऊ नही होती है, इस मृदा में कृषि फसल बोने के लिए उर्वरक की जरूरत होती है।
  • यह मिट्टी उन स्थानों में मिलती है जहां बाढ़ का पानी नहीं पहुंच पाता।
  • इस मृदा का विस्तार उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और बिहार राज्य में है।

2. नूतन जलोढ़ मृदा-

  • इसे खादर के नाम से भी जाना जाता है।
  • यह मिट्टी मुख्य रूप से नदियों के मैदानी भाग में पायी जाती है।
  • यह मिट्टी काफी उपजाऊ होती है क्योंकि इसमें पोटाश, फास्फोरिक एसिड, जीवांश, चुना आदि तत्व अधिक मात्रा में पायी जाती है।
  • उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, झारखंड, पंजाब, पूर्वी राजस्थान, ब्रम्हपुत्र घाटी में इस मिट्टी का विस्तार पाया जाता है।

3. नवीनतम जलोढ़ मृदा-

  • यह भी उपजाऊ मृदा है।
  • इसके कण बहुत ही बारीक होती है।
  • इसमें पोटाश, मैग्नीशियम, चुना, फास्फोरस, जीवांश अधिक मात्रा में पाया जाता है।
  • इसका विस्तार नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों, सुंदरवन डेल्टा, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी के डेल्टाई भागों में पायी जाती है।

जलोढ़ मृदा की विषेताएं-

  • इस मृदा में नमी धारण करने को क्षमता अधिक होती है।
  • मिट्टी उपजाऊ होती है और इसके कण बारीक और भुरभुरे होते है जिससे फसल उगाने में सरलता होती है।
  • इस मिट्टी में पोटाश, फास्फोरस और जैव तत्वों की प्रधानता होती है, लेकिन नाइट्रोजन कम होता है।
  • बांगर क्षेत्रों में गेंहू, कपास और गन्ने की फसल ली जाती है, खादर क्षेत्र गन्ने और चावल की फसलों के लिए प्रसिद्ध है इसके अलावा डेल्टाई क्षेत्र चावल, जूट की फसल के लिए विख्यात है।

2. पर्वतीय मृदा-

  • इस प्रकार की मृदा पर्वतीय/पहाड़ी भागों में पायी जाती है।
  • हिमालय पर्वत श्रृंखला में इस तरह की मिट्टी पायी जाती है, जो कि एक नवीन मृदा है।
  • पर्वतीय मृदा और भी कई अलग प्रकार की होती है जिनमे से एक पथरीली मृदा है जो चाय की खेती के लिए उपयुक्त होती है यह मिट्टी बड़ी दानों वाली होती है साथ ही इसमें कंकड़-पत्थर मिले होते है। इसमें चुना कम और लोहा तथा वनस्पति के अंश अधिक होते है।
  • पर्वतीय मृदा का ही एक दूसरा रूप चूनेऔर डोलोमाइट से बनी मृदा है। इस मृदा में चीड़ और साल वृक्ष उगते है।
  • पर्वतीय मृदा का विस्तार जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में है।

पर्वतीय मृदा की विशेषता-

  • यह मिट्टी कम उपजाऊ वाली होती है, इनमे पोटेशियम, फास्फोरस और चूना की कमी होती है।
  • पर्वतीय ढालों पर इसकी परत हल्की और नदी घाटी पर परत गहरी होती है।
  • इसमें जैव तत्व पाया जाता है लेकिन ऊंचाई के साथ इसकी मात्रा कम हो जाती है।

3. काली मृदा-

  • यह मिट्टी से निर्मित चट्टानों से बनी होती है।
  • यह एक उपजाऊ मृदा है, जिसमे रासायनिक तत्वों की प्रधानता होती है।
  • चूना, पोटाश, लोहा अच्छी मात्रा में पाए जाते है।
  • लेकिन फास्फोरस, नाइट्रोजन और जीवांश कम मात्रा में पाए जाते है।
  • कपास की फसल के लिए यह मिट्टी बहुत ही उपयुक्त मानी जाती है।
  • इसका विस्तार महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, दक्षिणी ओडिशा, कर्नाटक, दक्षिण एवं तटवर्ती आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा राजस्थान में है।

काली मृदा की विशेषता-

  • ज्वालामुखी के लावा से इस मिट्टी का निर्माण होता है, इसका रंग काला होता है इसलिए इसे काली मिट्टी कहते है।
  • चूना, पोटाश, और लोहा पर्याप्त मात्रा में होता है।
  • इस मिट्टी में जल धारण क्षमता अधिक होती है, इसलिए इसे शुष्क कृषि के लिए आदर्श माना जाता है।
  • यह मिट्टी बारीक कणों वाली चिकनी होती है।
  • यह कपास की खेती के लिए पूर्णतः उपयुक्त है। इसके अलावा गेंहू, चावल, ज्वार, तिलहन की फसल भी अच्छी होती है।
भारतीय मृदा के प्रकार एवं वितरण मानचित्र
भारतीय मृदा के प्रकार एवं वितरण मानचित्र

4. लाल और पीली मृदा-

  • इस मृदा का निर्माण रवेदार चट्टानों के विखंडन से होता है।
  • ये मिट्टी बहुत ही अधिक रंध्र युक्त होती है।
  • यह मिट्टी ऊंचाई में हल्की पथरीली तथा निचले भागों गहरे लाल रंग की होती है साथी उपजाऊ भी भी होती है।
  • मृदा के लाला रंग होने एक प्रमुख कारण चट्टानों से लोहांश का विसरण है।
  • आमतौर पर इस प्रकार की मिट्टी में ज्वार, बाजरा की खेती की जाती है लेकिन नदी घाटियों में इसी मिट्टी पर चावल भी बोया जाता है।
  • इस प्रकार की मृदा का विस्तार बुंदेलखंड से लेकर तमिलनाडु, दक्षिण पूर्वी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड आदि में है।

5. लैटेराइट मृदा-

  • लैटेराइट मृदा का निर्माण ज्यादातर शुष्क एवं तर मौसम से होता है।
  • लैटेराइट मृदा चट्टानों के टूट-फूट से बनती है।
  • इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता नहीं होती है, इसमें पोटाश, फास्फोरस कम पाया जाता है अतः इसे अनुपजाऊ मृदा कहा जा सकता है।
  • यह मिट्टी भले ही कृषि कार्य के लिए अधिक महत्व नही रखती लेकिन निर्माण कार्यों के लिए यह एक मूल्यवान संसाधन है।
  • इस मृदा का विस्तार लगभग 1.5 लाख वर्ग किलोमीटर में है।
  • यह मिट्टी पश्चिम मध्य प्रदेश, दक्षिण महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, ओडिशा, और असम राज्यों में फैली हुई है।

6. मरुस्थलीय मृदा-

  • राजस्थान, गुजरात, दक्षिण पंजाब, दक्षिण हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पायी जाने वाली यह एक अनुपजाऊ मृदा है।
  • इसमें नमी धारण क्षमता बिल्कुल भी नही होती है।
  • इस मृदा में आवश्यक पोषक तत्वों का अभाव होता है।
  • यह ज्यादातर बालू प्रधान होती है।

7. ऊसर, पीट एवं दलदली मृदा-

  • ऊसर मिट्टी का जन्म ऐसे क्षेत्रों से होता है जहां शुष्क एवं अधिक वर्षा के कारण जल प्रवाह दोषपूर्ण हो।
  • ऊसर मिट्टी में मैग्नीशियम, कैल्शियम, सोडियम जैसे लवणीय तत्व होते है जो फसल उत्पादन के अधिक उपयोगी नहीं होते।
  • यह मुख्य रूप से उत्तर बिहार, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश में पाये जाते है।
  • पीट एवं दलदली मृदा, आर्द्र प्रदेशों में पायी जाती है जहां बड़ी मात्रा में जीवांश हो।
  • ये मृदा अधिक भरी, अम्लीय तथा काले रंग की होती है।
  • दलदली मिट्टी उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा, उत्तरी बिहार, ओडिशा के तटीय भाग, सुंदरवन क्षेत्र, दक्षिण पूर्वी तमिलनाडु में पाये जाते है।

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Namaste! I'm sudhanshu. I have done post graduation in Geography. I love blogging on the subject of geography.

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